Sunday, December 6, 2009

ईनाम का दंश

विद्यालय टोपर बनकर माधव बहुत खुश था । सन साइन क्लब वालों ने उसका नाम पुरस्कार लिस्ट में लिख लिया होगा । उसका सहपाठी अनुराग पूरे वर्ष हेमन्त सर की ट्युशन करके भी उससे पीछे रह गया था । उसने दूसरा स्थान प्राप्त किया था जबकि माधव बिना किसी ट्युशन के प्रथम स्थान पर था । आस-पड़ौस भी अंचभित था कि यह कैसे हो गया । प्रशंसा भरी निहागों से माधव फूल-सा खिल उठा था। पड़ौसी आण्टी अपने बेटे को चुपके-चुपके लताड़ रही थी । इसी पड़ौसी का हट्टा-कट्टा लड़का जब माधव को दो मुक्के मार कर भाग गया था, उसका बदला माधव ने आज ले लिया था ।
लिखाई-पढाई से महरूप माधव की माँ बताया करती थी कि कैसे उसके पिताजी कई कोस चलकर पढने जाया करते थे । इन्टर की परीक्षा में प्रथम स्थान लाने हैडमास्टर ने दादाजी को बुलाकर उनके गले में रुपयों की माला डाली थी । सारा गांव तभी से माधव के पिताजी रामप्रसाद को भावी अफसर के रूप में देखने लगा था । आज इन्हीं रामप्रसादजी के बेटे ने प्रथम स्थान लाकर खून का असर दिखाया है । मां-पिताजी बेटे की ऊँची उड़ान के साथ उड़े चले जा रहे थे ।
माधव और रामप्रसादजी विद्यालय में आयोजित सम्मान समारोह में पहुँच चुके थे । अपनी बारी की प्रतीक्षा में बेटा माधव उस समय ठगा-सा रह गया जब स्टेज से सैकण्डरी परीक्षा में प्रथम स्थान पर अनुराग का नाम लिया गया । यह कैसा न्याय ? प्रथम स्थान के माक्र्स ही हटा दिये गए थे । द्वितीय स्थान को प्रथम स्थान पर घोषित कर दिया गया था । हकबकाए रामप्रसादजी के दमकते उत्साह पर बर्फ की बौछार हो गई । अपने जमाने की सच्चाई आज कुटिल नीति के आगे धूल चाटती नजर आ रही थी । माधव अपने पैरों पर तन का बोझा ढोये हुए घर आया । घर-भर की नजरों के सामने सिर झुकाये वह बैठ गया । उसके दिल में एक कील ठुक गई । दूसरे दिन रामप्रसादजी माधव की माक्सशीट लेकर क्लब गए । क्लब वालों ने विद्यालय द्वारा सौंपी गई पुरस्कृत विद्यार्थियों की लिस्ट दिखा दी । शेष पड़ी ट्राफी देकर उन्होंने क्षमा मांग ली । घर आकर रामप्रसादजी ने माधव के सिर पर हाथ फेर कर व ट्राफी पकड़ा दी किन्तु माधव का दिमाग कुटिल गलियों में मुड़ चुका था जिसका अन्त सिर्फ अन्धरी गुफा ही था ।

नई कहानी और नारी चेतना

नई कहानी में नारी चेतना: स्वरूप एवं विश्लेषण का सार संक्षेप
साहित्य मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं, विचारों तथा कल्पनाओं का लिखित कोष है । साहित्य जीवन की दिशा और क्रियात्मकता का नियामक भी है । साहित्यकार अपनी जीवनानुभूतियों एवं विचारों को व्याख्यायित तथा प्रदर्शित करने के लिए साहित्यिक विधाओं का सहारा लेता है । रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से इन विधाओं को गद्य, पद्य एवं चम्पू तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । कहानी भी गद्य साहित्य की एक विधा है । उपेन्द्रनाथ अश्क ने कहानी की प्राचीनता के विषय में लिखा है- ‘कहानी उतनी ही पुरानी है जितना मानव । सृष्टि के आरम्भ में जब एक सुनने वाला मिला, तभी शायद कहानी ने जन्म लिया ।‘ वेद, पुराण, उपनिषद, बौद्ध तथा जातक कथाओं में कहानी का प्राचीन स्वरूप विद्यमान है । प्राचीन हिन्दी कहानियों में आस्थावादी घटनाओं की बहुलता थी। सामाजिक सम्बन्धों, सांस्कृतिक परिवर्तनों एवं बदलते संदर्भों ने कहानी की संवेदना एवं शिल्प को प्रभावित किया। यही कारण है कि कहानी में कथ्य और शिल्प में भी परिवर्तन आने लगे, परन्तु कहानी विधा को किस्सागोई, घटना प्रधान, प्रवृत्तियुक्त विधा ही माना जाता था । इसलिए कहा जा सकता है कि बहुत दिन नहीं बीते जब कहानी को हल्के-फुल्के मनोरंजन मात्र तक सीमित माना जाता था । कथाकार और आलोचक भी कथानक, चरित्र, संवाद, वातावरण, उद्देश्य, प्रभान्विति की बंधी-बंधायी लीक पर चल रहे थे । कहानी को गम्भीर विषय नहीं माना जाता था । जिस चिन्तन-मनन और लगन से काव्य को पढा और विश्लेषित किया जाता था, उससे कविता साहित्य के शिखर पर पहुँच गयी थी। कथा साहित्य विशेषकर कहानी इस ‘शिखर‘ से बहुत दूर थी । ऐसा नहीं था कि कहानी कहानी के क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी थी । प्रेमचन्द संस्थान, प्रसाद संस्थान, जैनेन्द्र-अज्ञेय संस्थान, यशपाल संस्थान से अनेकों कहानियाँ प्रकाशित हो रही थीं । इनमें से कुछ आधुनिक जीवन-बोधयुक्त उत्कृष्ट कहानियाँ भी थीं जो परिवेशगत यथार्थ चित्रण के कारण महत्वपूर्ण समझी गई । जैसे- ‘मधुआ‘, ‘घीसू‘,‘छाया‘, ‘प्रतिध्वनि‘, ‘आकाशदीप‘, ‘आँधी‘(जयशंकर प्रसाद), ‘नशा‘,‘पूस की रात‘, ‘कफन‘, ‘बड़े भाई साहब‘,पंच परमेश्वर‘,‘नमक का दरोगा‘, ‘शतरंज के खिलाड़ी‘(प्रेमचन्द); ‘जाह्नवी‘, ‘अपना अपना भाग्य‘,‘एक दिन‘,‘पत्नी‘, मास्टरजी‘ (जैनेन्द्र); ‘मिलन‘(ज्वालादत्त);‘ रक्षाबन्धन‘(विश्वम्बरप्रसाद); ‘परम्परा‘, ‘जयदोल‘, कड़ियाँ‘, कोठरी की बात‘(अज्ञेय) आदि । स्वतंत्रतापूर्व की महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने जन-जीवन पर दूरगामी और अमिट प्रभाव छोड़ा । विश्व युद्ध, स्वतंत्रता आन्दोलन, सामुदायिक दंगे, देश-विभाजन आदि साहित्यकार के संवेदनशील चित्त को उद्वेलित कर रहे थे । स्वतंत्रता-प्राप्ति का सूर्य घनघोर दुःख भरी रात्रि के पश्चात् उदित हो रहा था । जन-मानस उसका स्वागत करने के लिए उत्सुक था, लेकिन अतीत की हृदय विदारक यादें भी साथ थीं। इस अभूतपूर्व वातावरण ने रचनाकार के लिए नवीन भाव-भूमि तैयार की । इसी ‘भूमि‘ पर साहित्य में नवीन प्रवृत्तियों के बीज पड़े । स्वतंत्रता-पश्चात् अंकुरण की प्रक्रिया शुरु हुई और सन् 1950 तक आते आते नवांकुर पल्लिवित होनेे के लिए तैयार हो गया। कहानी का यह पल्लन ‘नई कहानी‘ के रूप में दिखाई देने लगा । हंस, प्रतीक, नया पथ आदि पत्रिकाओं में सन् 1950 के आस-पास नये ढंग की कहानियाँ लिखी गई । ‘दादी माँ‘, आर पार की माला,(शिव प्रसाद सिंह); ‘गुलरा के बाबा‘, ‘पान-फूल‘, सात बच्चों की माँ‘(मार्कण्डेय) की प्रेमचंद परम्पर से जुड़ी हुई किन्तु नयी संवदेना एवं यथार्थ संवेदना की दृष्टि से कुछ नवीनतायुक्त कहानियाँ चर्चित हुई । जून 1954 में ‘कहानी‘ पत्रिका के पुनप्र्रकाशन तथा मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, नामवरसिंह, भैरव प्रसाद गुप्त आदि द्वारा कहानी की नयी पहचान रचने की चेष्टा की गई । सन् 1955 तक चक्रधर, श्रीपतराय, मार्कण्डेय आदि ने नई कहानी को वेगवती धारा में तब्दील कर दिया । नये कहानीकारों, समीक्षकों, पाठकों, सम्पादकों ने ‘नयी कहानी‘ को हाथों-हाथ लिया । ‘एक कमजोर लड़की की कहानी‘ (राजेन्द्र यादव), ‘गुल की बन्नो‘(धर्मवीर भारती), ‘रसप्रिया‘(फणीश्वरनाथ रेणु), ‘कोयला भई न राख‘ (केशव प्रसाद मिश्र), ‘मवाली‘(मोहन राकेश), ‘कस्बे का आदमी‘(कमलेश्वर)‘गदल‘(रांगेय राघव), ‘छृट्टियाँ‘(राजकुमार),‘बादलों के घेरे‘(कृष्णा सोबती),‘साबुन‘(मार्कण्डेय), ‘सेब‘(रघुवीर सहाय),‘कोयला भई न राख‘(केवल प्रसादमिश्र) आदि कहानियों के प्रकाशन के साथ ही नई कहानी विकसित पौधे के रूप में स्थापित हो गई । डा. नामवर सिंह ने ‘हिन्दी कविता की अपेक्षा कहानी में स्वस्थ सामाजिक शक्ति कहीं अधिक है‘ कहकर (कहानीः नयी कहानी: डा. नामवरसिंह) कहानी को कविता से भी ऊँचा शिखर प्रदान कर दिया। ‘डिप्टी कलक्टरी‘(अमरकांत), ‘मलबे का मालिक‘,‘मंदी‘(मोहन राकेश),‘चीफ की दावत‘(भीष्म साहनी),‘हंसाजाई अकेला‘(मार्कण्डेय),‘राजा निरबंसिया‘(कमलेश्वर),‘मैं हार गई‘(मन्नू भण्डारी),‘बिन्दा महाराज‘(शिवप्रसाद सिंह) आदि कहानियाँ सन् 1956 में छपीं । सन् 1957 तक समीक्षकों में भी हलचल शरू हो गई । ‘ग्राम कथा‘ बनाम ‘नगर कथा‘ को लेकर कहानीकारों में परस्पर विवाद का वातावरण भी बना जो अन्ततः निरर्थक घोषित कर दिया गया था । ‘नये बादल‘,‘सौदा‘(मोहन राकेश), ‘आत्मा की आवाज‘(कमलेश्वर),‘ रिश्ते‘(निर्मल वर्मा) आदि कहानियों ने कहानी में नए बदलाव को स्पष्ट किया । जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल जैसे कथाकारों की ठहरी हुई लेखनी को संभालने का काम अन्य कहानीकारों ने किया। नयी कहानी को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना ने कहानी को काफी चर्चित और लोकप्रिय विधा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया । नये कहानीकारों, समीक्षों, संपादकों, पाठकों ने नयी कहानी को आन्दोलन का रूप दे दिया और अन्ततः लगभग सभी ने नई कहानी को स्वीकार कर लिया । प्रमाणिक सत्यानुभूति यथार्थ नवीन दृष्टियुक्त नई कहानी ने अपनी सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता, शैलीगत विविधता एवं नवीनता, भाषागत सहजता आदि तत्वों के कारण परमपरागत कहानी से भिन्न अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई । सन् 1957 से ‘60 तक अनेक नये कहानीकार और उनकी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही । लेख मालाओं, सम्मेलनों, वार्ताओं द्वारा नई कहानी पर चर्चा अनवरत रूप से जारी रही । ‘लाल पान की बेगम‘(रेणु), ‘पिक्चर पोस्टकार्ड‘(निर्मल वर्मा), ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है‘ (राजेन्द्र यादव), ‘जिन्दगी और गुलाब के फूल‘(उषा प्रियंवदा), ‘इन्हें भी इन्तजार है‘(शिव प्रसादसिंह),‘पागल कुत्तों का मसीहा‘(सर्वेश्वरदयाल सक्सेना), ‘मेरे और नंगी औरत के बीच‘(रघुवीर सहाय) आदि कहानियाँ ‘कहानी‘,‘कल्पना‘,‘लहर‘,‘ज्ञानोदय‘, प्रभृत्ति पत्रिकाओं में छपीं । जनवरी 1961 में ‘नयी कहानी‘ पत्रिका के ‘हाशिये में‘ स्तम्भ से एक लेख माला शुरु की गई, जिसमें नामवर सिंह की समीक्षा तथा ‘कहानी: अच्छी और नयी‘ परिसंवाद में नये लेखकों, समीक्षकों द्वारा नयी कहानी पर विहंगम विश्लेषण करके उसकी कमजोरियों एवं खूबियों पर अपने विचार व्यक्त किये । परिणामस्वरूप नयी कहानी में फिर से आन्दोलनकारी तत्व सक्रिय हो गये और अनेक आन्दोलनों का भी सूत्रपात हुआ , जैसे- अकहानी, समकालीन, सचेतन, सहज, समान्तर, सक्रिय, आँचलिक आदि कहानी आन्दोलन । वस्तुतः ये अलग-अलग नाम से प्रचलित आन्दोलन गुटबदी और चर्चा मोह के फलस्वरूप अस्तित्व में आये । ”इन आन्दोलनों के पीछे चर्चित होने, गुटबंदी एवं घटिया स्तर की साहित्यिक राजनीति को प्रश्रय देने की भावना थी तथा जिनसे आन्दोलनकारी पीढ़ी-संघर्ष, वैचारिक-क्रांति, विद्रोह आदि की मुद्रा में नेतागिरी की भूख को शांत कर रहे थे ।”(नई कहानी उपलब्धि एवं सीमाएँ:डाॅ. गोरधनसिंह शेखावत) इन आन्दालनों को कहानीरूपी वृक्ष की ही विविध शाखाएँ मानी जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि इन आन्दोलनों के दौरान रचित कहानियों में रचना-प्रक्रिया, परिवेशगत यथार्थता, नवीन भाव बोध आदि के रूप में समानता दिखाई देती है या बहुत कम अन्तर दिखाई देता है तथा कहानीकार भी समान ही थे । सन् 1961 के बाद नई कहानियाँ, सारिका, वातायान, माया, धर्मयुग, उत्कर्ष, ज्ञानोदय, अणिमा आदि पत्र-पत्रिकाओं ने नई कहानी के विकास में अपना योगदान दिया। इनमें पुराने नाले पर नया फ्लेट‘(राजेन्द्र यादव), ‘क्षय‘(मन्नू भण्डारी), ‘दिल्ली में एक मौत‘(कमलेश्वर), ‘सपाट चेहरे वाला आदमी‘, (दूधनाथ सिंह), ‘सावित्री नं. 2(धर्मवीर भारती), ‘घरघुसरा‘(मनहर चैहान), ‘नौ साल छोटी पत्नी‘(रवीन्द्र कालिया),‘एक और विदाई‘(गंगा प्रसाद विमल), ‘सुख‘(काशीनाथ सिंह), ‘पाँचवें माले का फ्लेट‘ (मोहन राकेश), ‘शव यात्रा‘ (श्रीकांत वर्मा), ‘फेंस के इधर- उधर‘(ज्ञानरंजन), ‘आदिम रात्रि की महक‘(रेणु), ‘कमरे में कैक्टस‘(रमेश बक्षी), ‘ऊपर उठता हुआ मकान‘(कमलेश्वर),‘पेपरवेट‘ (गिरिराज किशोर),‘मेरा दुश्मन‘ (कृष्ण बलदेव वैद), ‘एक कमरे का घर‘(शानी), ‘एक और विदाई‘(भीमसेन त्यागी) आदि कहानियाँ छपीं। नई कहानी ने सर्वप्रथम ‘कहानी‘ को सर्वोच्च विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का कार्य किया । युगीन परिवेश और तत्कालीन परिवेश का दबाव झेलने में नई कहानी समर्थ रही । नव लेखन के लिए भी नई कहानी प्रेरणादायी रही । नये कहानीकारों ने यथार्थ का जो तटस्थ, निर्भय, अनुभूत, चित्रण जिस ईमानदारी से कहानियों में किया है वह अभूतपूर्व है । सामाजिक संदर्भों को लेकर चलने वाली नई कहानी ने मानव के व्यस्तम जीवन में मनोरंजनार्थ लोकप्रिय विधा के रूप में अपना अहम् स्थान बना लिया है। ------------------------------ दृष्टिकोण ---------------------------------------------- भारतीय संस्कृति में नारी का व्यक्तित्व गरिमामयी रहा है । नर-नारी एक-दूसरे के पूरक माने गए हैं । वैदिक काल में नारी का महत्त्व रहा है । उसे गृह लक्ष्मी का दर्जा दिया जाता है। उसका-कार्य घर की देखभाल करना निश्चित किया गया है। मध्यकाल आते-आते आर्थिक भार पुरुषों के कंधों पर रहा । पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में नारी को सदैव आश्रिता समझा गया । घर-गृहस्थी की चैखट के भीतर नारी से आशा की जाती है वह चाहे जैसी भी स्थिति हो उसे सिर झुकाकर स्वीकार कर ले । आँचल में दूध और आँख में पानी लिये जीवन जीती रहे । किसी से गिला-शिकवा करने का अधिकार भी उसके पास नहीं था । समस्त प्रकार के नैतिक दायित्व नारी के लिये ही थे, पुरुष के लिए हर प्रकार की छूट थी । वह निकम्मा होकर भी नारी से कर्मठ होने की आशा कर सकता था । स्वयं कायर होकर भी नारी को मारकर अपनी बहादुरी दिर्शाता था । बेवफा होकर भी नारी से बफादार रहने की उम्मीद करता था । जहाँ कहीं नारी ने बेवफाई की वहाँ उसे दुनियाभर के धिक्कार को सहना पड़ा था । फिजुल खर्च होते हुए भी नारी को मितव्यता की शिक्षा देने वाला पुरुष नारी को यथार्थ से अलग कल्पना जगत की वस्तु मानकर व्यवहार करता था । उसका सौन्दर्य अपने भोग के लिये प्रदत्त मानता था । शादी भी वह संतान और स्वयं के सुख के लिए करता था । प्रेम और सैक्स में सैक्स ही प्रधान था, बल्कि सैक्स ही प्रेम था। सन्तान न होना या सिर्फ लड़कियाँ होने की जिम्मेदारी नारी पर थोपने में उसे जरा भी लज्जा नहीं आती थी । नारी की सब इच्छाएँ, आकांक्षाएँ परिवार की तीमारदारी में ही खो जाती थीं। भाई, पिता, पति-पुत्र की प्रधानता को सहना जैसे नारी की नियति बन गई हो । मायका उसके लिए पराया घर था और ससुराल में उसका अपना कोई घर नहीं था । उसके लिए कोई अपनत्व नहीं था । परम्परा को निभाते-चलाते ही हंस-रो कर उसके जीवन की साँझ हो जाती थी । नई कहानियों में इन स्थितियों का खुला चित्रण मिलता है । --------------------------------------चुनौतियाँ-------------------------------------- भारतीय समाज में आज भी नारी का दर्जा पुरुष से कम है। नारी की मातृत्व-क्षमता का आदर करने के बजाय इसी को उसकी कमजोरी मान लिया गया है। जिस देश में नर-नारी दोनों को एक ही परमबह्म के दो रूप माना गया था उसी देश में नारी की स्थिति नर से निम्न हो गयी । इस भेद-प्रवृत्ति को कायम रखने के लिए धर्म की मदद ली गई । पिण्डदान, वंश-वृद्धि, आर्थिक एकाधिकार के नाम पर जन्म से ही भेद-दृष्टि रखी जाने लगी । नारी को भोग्या, ठगिनी, कुलटा, अबला, अस्पृश्या, कामिनी आदि उपाधियों से नवाजा जाने लगा। माना पुरुष तो भोगी, ठग, कुटिल, कायर, कामी हो ही नहीं सकते या उनमें इन दुष्प्रवृत्तियों की उत्तरदायी सिर्फ नारी ही होती है। आज भी समाचार-पत्रों में पुत्र-प्राप्ति हेतु बलि देने, जन्म से पहले ही पुत्री को मार डालने, दहेज प्रथा के कारण वधुओं को जला डालने, अमानवीय यंत्रणा देने जैसी घटनाएँ पढ़ने को मिलती है । बलात्कार, अपहरण, छींटाकशी, छेड़छाड़ जैसी घटनाओं का तो अन्त ही नहीं । आज भी शिक्षा-क्षेत्र में लड़कियों का प्रवेश लड़कियों की अपेक्षा न्यून है । परीक्षा-परिणामों में लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा बाजी मारती हुई साबित होती है, किन्तु फिर भी पिछड़े इलाकों या वर्गों में बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान कम ही दिया जा रहा है । फलतः अशिक्षाजनित दोष नारी-समाज में विद्यमान है । अन्धविश्वास, जादू-टोना-टोटका, ज्योतिषियों, बाबाओं, ओझाओं आदि द्वारा वह ठगी जा रही है । पुरुष अधीनता को वह अपनी नियति मान रही है, बल्कि इसी को वह अपना परम धार्मिक कत्र्तव्य भी समझती है । न केवल अनपढ़ ग्रामीण, पिछड़ी महिलाएँ बल्कि पढ़ी-लिखी घर-बाहर की जिम्मेदारी सम्भालती महिलाएँ भी अनेक तरह से पुरुष-मानसिकता एवं आधिपत्य को झेलने के लिए बाध्य है । नारी-स्वतंत्रता, नारी-जागृति की आशान्वित कल्पना अभी पूर्णतः साकार नहीं हुई है । आज नारी-स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखलता में परिवर्तित किया जा रहा है । नर-नारी सम्बन्धों में उन्मुक्त यौन-सम्बन्ध, फैशन के नाम पर नारी-देह-प्रदर्शन जैसी विकृतियाँ समाज में फैलने लगी हंै । पूँजीवादी मानसिकता वाले लोग अब नए तरीके से नारी-भोग का मार्ग ढूँढ रहे हैं । सिनेमा, विज्ञापन, पाश्चात्य संस्कृति आदि के द्वारा नारी को निर्लज्ज बनाकर व्यभिचार के पंक में धकेलनेे की साजिश रची जा रही है । ‘सुन्दरता‘ और ‘शरीर‘ को मानवीय भावनाओं से अधिक महत्त्व देकर पाशचात्य देश शृंगार-उद्योग को पनपने का अवसर दे रहे हैं । तरह-तरह के ब्यूटी-कम्पीटिशनस की बढ़ोत्तरी उसका प्रमाण है। शिक्षण-संस्थान तक इस दैहिक प्रदर्शन से अछूते नहीं रह पाए हैं । पिछड़े गाँवदेहात तक की नारियाँ तरह-तरह की सौन्दर्य-सामग्रियों से परिचित होने लगी हैं । छेड़-छाड़, बलात्कार, हत्या, आत्महत्या आदि घटनाओं के पीछे नारी के देह-प्रदर्शन का भी योगदान है। अश्लील साहित्य और सिनेमा, नैतिक शिक्षा का अभाव, उचित देखभाल का अभाव आदि के कारण आज भी नारी दिग्भ्रमित और शोषित है। सच्चे अर्थों में ‘नारी-स्वतंत्रता अभियान‘ आज की प्राथमिकता है । नारी को अपनी प्रतिभा का उपयोग करके ‘सबला‘ बनना होगा। अपने अस्तित्व और स्वाभिमान के प्रति सचेत रहकर आम्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाना होगा । इसके लिए न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक रूप से भी सुदृढ़ता पाने के प्रयास करने होंगे । उसे यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि वह नर से किसी भी प्रकार कम नहीं है । जितनी आवश्यकता नारी को नर की है, उतनी नर को नारी की। दोनों परस्पर पूरक हैं । दोनों के कत्र्तव्य समान हैं तो अधिकार भी समान होने चाहिए। अर्द्धनारीश्वर संस्कृति को दृढ़ता से अपनाना आवश्यक है । स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीति, न्याय, व्यवसाय आदि के क्षेत्र में नारी हितार्थ व्यवस्थाएँ की गई हैं उसका लाभ उठाना चाहिए । समाज में मौजूद दहेज प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, पर्दा-प्रथा जैसी कुरीतियों का डटकर मुकाबला करना, कन्या-भ्रूण-हत्या को रोकना, यौन-शोषण का विरोध करना, नारी अत्याचार को मिटाना आदि आज की चुनौतियाँ हैं । ----------------------------------------- दिशाएँ-------------------------------------- स्वतंत्र्योत्तर-काल नारी के लिए नवीन चेतना का काल बन कर आया । शिक्षा, नारी जागृति आन्दोलन, राजनैतिक-संरक्षण, संविधान प्रदत्त अधिकार आदि के कारण नारियों ने अपने अस्तित्व को पहचानना शुरु किया । परिवार से शुरु कर नारी ने अपना विरोधी स्वर समस्त देश में गुँजायमान कर दिया । उसकी आवाज पर उसे समर्थन भी मिला । नई कहानी में नारी के व्यक्तिगत चेतन स्वरूप के साथ-साथ उसके पारिवारिक और सामाजिक स्वरूप का चित्रण भी किया गया है । समाज में नारी के सामाजिक पहलुओं को विविधता के साथ दर्शाया गया है । कहीं नारी के अकेली, कहीं दुकेली और कहीं बहुली दिखाया गया है । कहीं नारी शिक्षिता है तो कहीं अशिक्षिता, कहीं नौकरी पेशा है तो कहीं गृहिणी । कहीं देशीपन लिए हुए है तो कहीं विदेशीपन। नई कहानी में नारी का परिवार और परिवारेत्तर सम्बन्ध भी बहुतायत से दिखाई देता है। नारी को पत्नी रूप में, प्रेमिका रूप में और पत्नी तथा प्रेमिका दोनों रूपों में चित्रित किया गया है । सुहागिन, विधवा, तलाकशुदा, मित्रयुक्त-नारी इन विविध रूपों की छवि हम नई कहानी में देख सकते हैं । नई कहानी के समय समाज में आधुनिक विचार प्रभावी थे। पाश्चात्य चेतना भारतीय समाज की चेतना बनती जा रही थी। स्त्री-पुरुष संबंधों को एक नवीन दृष्टि कोण से प्रस्तुत किया जाने लगा। समाज में पुरुष प्रधानता को स्त्रियों द्वारा चुनौती दी जाने लगी। पुरुष और स़्त्री भेद मिटने लगा । स्त्री और पुरुष साथ-साथ काम करने लगे। अब औरतों को अपने संरक्षण के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहने की स्थिति बनने लगी । अब घर से बाहर उसे किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं पड़ती। पति को वह अपने समकक्ष मानने लगी है। घर के मुखिया के रूप में पुरुष की मर्जी चलती आई थी। आधुनिक नारी ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की चाह के चलते अपने निर्णय स्वयं लेना शुरु कर दिया । पुरुष की बाँदी बने रहने के बजाय मतभेद की स्थिति में वह उसे तलाक भी देने लगी। पिता द्वारा लड़की का वर तलाशना परम कत्र्तव्य माना जाता था । लड़की भी पिता द्वारा चुने गये वर को चुपचाप अपनाना पड़ता था । नई कहानी में अनेक स्थानों पर लड़कियों ने अपने द्वारा चुने लड़के से विवाह किया है । अब लड़कियाँ पिता के निर्णय में भी हस्तक्षेप करने लगी हैं । प्रेम विवाह करें या आजीवन कुँवारी रहे, यह निर्णय वह स्वयं करने लगी । परिवार में भाई की अपेक्षा बहनों का महत्व नगण्य था । परिवर्तित-परिस्थितियों में बहनें आर्थिक रूप से सक्षम हुई और भाईयों की अपेक्षा परिवार में अधिक महत्व प्राप्त करने लगीं । भाई की तरह वह भी पिता की गृहस्थी-बोझ उठाने का उपाय करने लगी। आर्थिक जिम्मेदारी निभाना उसे भी अपना कत्र्तव्य जान पड़ने लगा । नई कहानी में बहन-बेटी के इस नवीन रूप को भी रूपायित किया गया। पत्नी एवं प्रेमिकाके रूप में नारी के विविध रूप स्वतंत्र चेतनायुक्त हैं । गृहणी हो या नौकरीपेशा, नारी ने कदम-कदम पर अपनी उपस्थिति दर्ज करनाई है । नई कहानी में नारी अभूतपूर्व रूप में प्रस्तुत हुई है । ----------------------------------- भावी सम्भावनाएँ------------------------------------ हर्ष का विषय है कि नारी जागरण कि लहर सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गई है । भारत में भी नारी-स्थिति में सुधार के ठोस प्रयास किये जा रहे हैं । भ्रूण-परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है । समाज की जागरूकता से चोरी-छिपे हो रहे भ्रूण-परीक्षणों और कन्या-भ्रूण-हत्या का पूर्णतः सफाया किया जा सकता है । महिला-पुरुष असन्तुलन से समाज परिचित हो गया है अतः पुत्री जन्म पर मातम मनाया जाना भी बन्द हो रहा है । पुत्री को पुत्र के समान आगे बढ़ने के अवसर मिलने लगे हैं । माता-पिता पुत्री की परवरिश पुत्र के समान करने लगे हैं । पुत्रैच्छा की प्रबलता कम होने लगी है। व्यवहार में पुत्रियाँ माता-पिता और घर-परिवार की ज्यादा हितैषी साबित हुई हैं । उनमें पुत्र की अपेक्षा अनैतिक कार्य-व्यापार, नशा, जुआ आदि दुर्गुण नहीं होते या अपवाद स्वरूप ही पाये जाते हैं । सेवा-भाव, दायित्व-भावना, मानवीयता, भावात्मकता, आध्यात्मिकता आदि सद्गुणों के कारण नारी को सम्मान मिलने लगा है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है । कानून स्त्रियों का समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है । उसे भी व्यस्क मताधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता प्राप्त है । 18 वर्ष से पूर्व लड़की का विवाह करना अब गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है । बालिका शिक्षा के प्रयासों में गति आई है। बालिकाओं को विद्यालय-स्तर तक मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाती है । पिता की सम्पत्ति में पुत्री को भी समान अधिकार प्राप्त है। तलाक, पुनर्विवाह अब समाज में मान्यता पाने लगे है । दहेज लेन-देन दोनों को कानूनन अपराध-घोषित कर दिया गया है । ‘स्त्री-धन‘ केवल स्त्री का धन माना जा चुका है । संचार-माध्यमों के द्वारा महिला-समस्याओं से परिचित करवाने के साथ ही इनके निदानात्मक प्रयासों पर भी ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है । सन् 1974 तो अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया । महिला यौन-उत्पीड़न रोकने के लिए कड़े प्रावधान किये गये हैं । घर और घर से बाहर, कार्य-स्थल पर नारी सम्मान की रक्षा का प्रावधान लागू है । सभा-सम्मेलनों, प्रस्तावों, प्रदर्शनों, महिला हितार्थ गठित आयोगों के कारण नारी सुधार के रचनात्मक कार्य शुरु हुए हैं । नारी को हर दृष्टि से पुरुषों के समकक्ष लाने के चैतरफा प्रयास जारी हैं । वह दिन दूर नहीं जब नारी-शोषण, नारी-पिछड़ापन, इतिहास की बातें रह जाएंगी । परिवार, समाज, गाँव, शहर, राज्य, देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को नारी-शक्ति का लोहा मानना होगा । नारी को रात-बेरात यहाँ-वहाँ जाने के लिए पृरुषों की आवश्यकता नहीं रहेगी। महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की नियुक्ति, पुरुष-कार्यक्षेत्र में प्रवेश के कारण भावी सम्भावनाओं की विश्वसनीयता पर कोई संकट नजर नहीं आता । नारी की बौद्धिकता, परिश्रम और जागरण आने वाले समय में अपनी श्रेष्ठता को साबित करने वाला होगा । न केवल नारी बल्कि सम्पूर्ण देश नारी-उत्थान के लिए प्रयासरत है । अतः सम्भावनाभरा भविष्य साकार होना ही चाहिए । पुरुष भी तो अब अपना लिंग परिवर्तित कराकर नारी बन जाने में संकोच नहीं करता । नारी सम्मान का इससे बढ़कर उदाहरण और क्या होगा ? पुरुषों के वर्चस्व को अजमा चुका युग परिवेश अब नारी-शक्ति और नेतृत्व का आकांक्षी है ।